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Rigveda – Shakala Samhita – Mandala 01 Sukta 174
A
A+
१० अगस्त्यो मैत्रावरुणिः । इन्द्रः। त्रिष्टुप्।
त्वं राजे॑न्द्र॒ ये च॑ दे॒वा रक्षा॒ नॄन् पा॒ह्य॑सुर॒ त्वम॒स्मान् ।
त्वं सत्प॑तिर्म॒घवा॑ न॒स्तरु॑त्र॒स्त्वं स॒त्यो वस॑वानः सहो॒दाः ॥१
दनो॒ विश॑ इन्द्र मृ॒ध्रवा॑चः स॒प्त यत् पुर॒: शर्म॒ शार॑दी॒र्दर्त् ।
ऋ॒णोर॒पो अ॑नव॒द्यार्णा॒ यूने॑ वृ॒त्रं पु॑रु॒कुत्सा॑य रन्धीः ॥२
अजा॒ वृत॑ इन्द्र॒ शूर॑पत्नी॒र्द्यां च॒ येभि॑: पुरुहूत नू॒नम् ।
रक्षो॑ अ॒ग्निम॒शुषं॒ तूर्व॑याणं सिं॒हो न दमे॒ अपां॑सि॒ वस्तो॑: ॥३
शेष॒न् नु त इ॑न्द्र॒ सस्मि॒न् योनौ॒ प्रश॑स्तये॒ पवी॑रवस्य म॒ह्ना ।
सृ॒जदर्णां॒स्यव॒ यद् यु॒धागास्तिष्ठ॒द्धरी॑ धृष॒ता मृ॑ष्ट॒ वाजा॑न् ॥४
वह॒ कुत्स॑मिन्द्र॒ यस्मि॑ञ्चा॒कन् त्स्यू॑म॒न्यू ऋ॒ज्रा वात॒स्याश्वा॑ ।
प्र सूर॑श्च॒क्रं वृ॑हताद॒भीके॒ ऽभि स्पृधो॑ यासिष॒द् वज्र॑बाहुः ॥५
ज॒घ॒न्वाँ इ॑न्द्र मि॒त्रेरू॑ञ्चो॒दप्र॑वृद्धो हरिवो॒ अदा॑शून् ।
प्र ये पश्य॑न्नर्य॒मणं॒ सचा॒योस्त्वया॑ शू॒र्ता वह॑माना॒ अप॑त्यम् ॥६
रप॑त् क॒विरि॑न्द्रा॒र्कसा॑तौ॒ क्षां दा॒सायो॑प॒बर्ह॑णीं कः ।
कर॑त् ति॒स्रो म॒घवा॒ दानु॑चित्रा॒ नि दु॑र्यो॒णे कुय॑वाचं मृ॒धि श्रे॑त् ॥७
सना॒ ता त॑ इन्द्र॒ नव्या॒ आगु॒: सहो॒ नभोऽवि॑रणाय पू॒र्वीः ।
भि॒नत् पुरो॒ न भिदो॒ अदे॑वीर्न॒नमो॒ वध॒रदे॑वस्य पी॒योः ॥८
त्वं धुनि॑रिन्द्र॒ धुनि॑मतीर्ऋ॒णोर॒पः सी॒रा न स्रव॑न्तीः ।
प्र यत् स॑मु॒द्रमति॑ शूर॒ पर्षि॑ पा॒रया॑ तु॒र्वशं॒ यदुं॑ स्व॒स्ति ॥९
त्वम॒स्माक॑मिन्द्र वि॒श्वध॑ स्या अवृ॒कत॑मो न॒रां नृ॑पा॒ता ।
स नो॒ विश्वा॑सां स्पृ॒धां स॑हो॒दा वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥१०
त्वं राजे॑न्द्र॒ ये च॑ दे॒वा रक्षा॒ नॄन् पा॒ह्य॑सुर॒ त्वम॒स्मान् ।
त्वं सत्प॑तिर्म॒घवा॑ न॒स्तरु॑त्र॒स्त्वं स॒त्यो वस॑वानः सहो॒दाः ॥१
दनो॒ विश॑ इन्द्र मृ॒ध्रवा॑चः स॒प्त यत् पुर॒: शर्म॒ शार॑दी॒र्दर्त् ।
ऋ॒णोर॒पो अ॑नव॒द्यार्णा॒ यूने॑ वृ॒त्रं पु॑रु॒कुत्सा॑य रन्धीः ॥२
अजा॒ वृत॑ इन्द्र॒ शूर॑पत्नी॒र्द्यां च॒ येभि॑: पुरुहूत नू॒नम् ।
रक्षो॑ अ॒ग्निम॒शुषं॒ तूर्व॑याणं सिं॒हो न दमे॒ अपां॑सि॒ वस्तो॑: ॥३
शेष॒न् नु त इ॑न्द्र॒ सस्मि॒न् योनौ॒ प्रश॑स्तये॒ पवी॑रवस्य म॒ह्ना ।
सृ॒जदर्णां॒स्यव॒ यद् यु॒धागास्तिष्ठ॒द्धरी॑ धृष॒ता मृ॑ष्ट॒ वाजा॑न् ॥४
वह॒ कुत्स॑मिन्द्र॒ यस्मि॑ञ्चा॒कन् त्स्यू॑म॒न्यू ऋ॒ज्रा वात॒स्याश्वा॑ ।
प्र सूर॑श्च॒क्रं वृ॑हताद॒भीके॒ ऽभि स्पृधो॑ यासिष॒द् वज्र॑बाहुः ॥५
ज॒घ॒न्वाँ इ॑न्द्र मि॒त्रेरू॑ञ्चो॒दप्र॑वृद्धो हरिवो॒ अदा॑शून् ।
प्र ये पश्य॑न्नर्य॒मणं॒ सचा॒योस्त्वया॑ शू॒र्ता वह॑माना॒ अप॑त्यम् ॥६
रप॑त् क॒विरि॑न्द्रा॒र्कसा॑तौ॒ क्षां दा॒सायो॑प॒बर्ह॑णीं कः ।
कर॑त् ति॒स्रो म॒घवा॒ दानु॑चित्रा॒ नि दु॑र्यो॒णे कुय॑वाचं मृ॒धि श्रे॑त् ॥७
सना॒ ता त॑ इन्द्र॒ नव्या॒ आगु॒: सहो॒ नभोऽवि॑रणाय पू॒र्वीः ।
भि॒नत् पुरो॒ न भिदो॒ अदे॑वीर्न॒नमो॒ वध॒रदे॑वस्य पी॒योः ॥८
त्वं धुनि॑रिन्द्र॒ धुनि॑मतीर्ऋ॒णोर॒पः सी॒रा न स्रव॑न्तीः ।
प्र यत् स॑मु॒द्रमति॑ शूर॒ पर्षि॑ पा॒रया॑ तु॒र्वशं॒ यदुं॑ स्व॒स्ति ॥९
त्वम॒स्माक॑मिन्द्र वि॒श्वध॑ स्या अवृ॒कत॑मो न॒रां नृ॑पा॒ता ।
स नो॒ विश्वा॑सां स्पृ॒धां स॑हो॒दा वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥१०