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Rigveda – Shakala Samhita – Mandala 01 Sukta 131
A
A+
७ परुच्छेपो दैवोदासिः । इन्द्रः। अत्यष्टिः।
इन्द्रा॑य॒ हि द्यौरसु॑रो॒ अन॑म्न॒तेन्द्रा॑य म॒ही पृ॑थि॒वी वरी॑मभिर्द्यु॒म्नसा॑ता॒ वरी॑मभिः ।
इन्द्रं॒ विश्वे॑ स॒जोष॑सो दे॒वासो॑ दधिरे पु॒रः ।
इन्द्रा॑य॒ विश्वा॒ सव॑नानि॒ मानु॑षा रा॒तानि॑ सन्तु॒ मानु॑षा ॥१॥
विश्वे॑षु॒ हि त्वा॒ सव॑नेषु तु॒ञ्जते॑ समा॒नमेकं॒ वृष॑मण्यव॒: पृथ॒क् स्व॑: सनि॒ष्यव॒: पृथ॑क् ।
तं त्वा॒ नावं॒ न प॒र्षणिं॑ शू॒षस्य॑ धु॒रि धी॑महि ।
इन्द्रं॒ न य॒ज्ञैश्चि॒तय॑न्त आ॒यव॒: स्तोमे॑भि॒रिन्द्र॑मा॒यव॑: ॥२॥
वि त्वा॑ ततस्रे मिथु॒ना अ॑व॒स्यवो॑ व्र॒जस्य॑ सा॒ता गव्य॑स्य नि॒:सृज॒: सक्ष॑न्त इन्द्र नि॒:सृज॑: ।
यद् ग॒व्यन्ता॒ द्वा जना॒ स्व १र्यन्ता॑ स॒मूह॑सि ।
आ॒विष्करि॑क्र॒द् वृष॑णं सचा॒भुवं॒ वज्र॑मिन्द्र सचा॒भुव॑म् ॥३॥
वि॒दुष्टे॑ अ॒स्य वी॒र्य॑स्य पू॒रव॒: पुरो॒ यदि॑न्द्र॒ शार॑दीर॒वाति॑रः सासहा॒नो अ॒वाति॑रः ।
शास॒स्तमि॑न्द्र॒ मर्त्य॒मय॑ज्युं शवसस्पते ।
म॒हीम॑मुष्णाः पृथि॒वीमि॒मा अ॒पो म॑न्दसा॒न इ॒मा अ॒पः ॥४॥
आदित् ते॒ अ॒स्य वी॒र्य॑स्य चर्किर॒न् मदे॑षु वृषन्नु॒शिजो॒ यदावि॑थ सखीय॒तो यदावि॑थ ।
च॒कर्थ॑ का॒रमे॑भ्य॒: पृत॑नासु॒ प्रव॑न्तवे ।
ते अ॒न्याम॑न्यां न॒द्यं॑ सनिष्णत श्रव॒स्यन्त॑: सनिष्णत ॥५॥
उ॒तो नो॑ अ॒स्या उ॒षसो॑ जु॒षेत॒ ह्य १र्कस्य॑ बोधि ह॒विषो॒ हवी॑मभि॒: स्व॑र्षाता॒ हवी॑मभिः ।
यदि॑न्द्र॒ हन्त॑वे॒ मृधो॒ वृषा॑ वज्रि॒ञ्चिके॑तसि ।
आ मे॑ अ॒स्य वे॒धसो॒ नवी॑यसो॒ मन्म॑ श्रुधि॒ नवी॑यसः ॥६॥
त्वं तमि॑न्द्र वावृधा॒नो अ॑स्म॒युर॑मित्र॒यन्तं॑ तुविजात॒ मर्त्यं॒ वज्रे॑ण शूर॒ मर्त्य॑म् ।
ज॒हि यो नो॑ अघा॒यति॑ शृणु॒ष्व सु॒श्रव॑स्तमः ।
रि॒ष्टं न याम॒न्नप॑ भूतु दुर्म॒तिर्विश्वाप॑ भूतु दुर्म॒तिः ॥७॥
इन्द्रा॑य॒ हि द्यौरसु॑रो॒ अन॑म्न॒तेन्द्रा॑य म॒ही पृ॑थि॒वी वरी॑मभिर्द्यु॒म्नसा॑ता॒ वरी॑मभिः ।
इन्द्रं॒ विश्वे॑ स॒जोष॑सो दे॒वासो॑ दधिरे पु॒रः ।
इन्द्रा॑य॒ विश्वा॒ सव॑नानि॒ मानु॑षा रा॒तानि॑ सन्तु॒ मानु॑षा ॥१॥
विश्वे॑षु॒ हि त्वा॒ सव॑नेषु तु॒ञ्जते॑ समा॒नमेकं॒ वृष॑मण्यव॒: पृथ॒क् स्व॑: सनि॒ष्यव॒: पृथ॑क् ।
तं त्वा॒ नावं॒ न प॒र्षणिं॑ शू॒षस्य॑ धु॒रि धी॑महि ।
इन्द्रं॒ न य॒ज्ञैश्चि॒तय॑न्त आ॒यव॒: स्तोमे॑भि॒रिन्द्र॑मा॒यव॑: ॥२॥
वि त्वा॑ ततस्रे मिथु॒ना अ॑व॒स्यवो॑ व्र॒जस्य॑ सा॒ता गव्य॑स्य नि॒:सृज॒: सक्ष॑न्त इन्द्र नि॒:सृज॑: ।
यद् ग॒व्यन्ता॒ द्वा जना॒ स्व १र्यन्ता॑ स॒मूह॑सि ।
आ॒विष्करि॑क्र॒द् वृष॑णं सचा॒भुवं॒ वज्र॑मिन्द्र सचा॒भुव॑म् ॥३॥
वि॒दुष्टे॑ अ॒स्य वी॒र्य॑स्य पू॒रव॒: पुरो॒ यदि॑न्द्र॒ शार॑दीर॒वाति॑रः सासहा॒नो अ॒वाति॑रः ।
शास॒स्तमि॑न्द्र॒ मर्त्य॒मय॑ज्युं शवसस्पते ।
म॒हीम॑मुष्णाः पृथि॒वीमि॒मा अ॒पो म॑न्दसा॒न इ॒मा अ॒पः ॥४॥
आदित् ते॒ अ॒स्य वी॒र्य॑स्य चर्किर॒न् मदे॑षु वृषन्नु॒शिजो॒ यदावि॑थ सखीय॒तो यदावि॑थ ।
च॒कर्थ॑ का॒रमे॑भ्य॒: पृत॑नासु॒ प्रव॑न्तवे ।
ते अ॒न्याम॑न्यां न॒द्यं॑ सनिष्णत श्रव॒स्यन्त॑: सनिष्णत ॥५॥
उ॒तो नो॑ अ॒स्या उ॒षसो॑ जु॒षेत॒ ह्य १र्कस्य॑ बोधि ह॒विषो॒ हवी॑मभि॒: स्व॑र्षाता॒ हवी॑मभिः ।
यदि॑न्द्र॒ हन्त॑वे॒ मृधो॒ वृषा॑ वज्रि॒ञ्चिके॑तसि ।
आ मे॑ अ॒स्य वे॒धसो॒ नवी॑यसो॒ मन्म॑ श्रुधि॒ नवी॑यसः ॥६॥
त्वं तमि॑न्द्र वावृधा॒नो अ॑स्म॒युर॑मित्र॒यन्तं॑ तुविजात॒ मर्त्यं॒ वज्रे॑ण शूर॒ मर्त्य॑म् ।
ज॒हि यो नो॑ अघा॒यति॑ शृणु॒ष्व सु॒श्रव॑स्तमः ।
रि॒ष्टं न याम॒न्नप॑ भूतु दुर्म॒तिर्विश्वाप॑ भूतु दुर्म॒तिः ॥७॥