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Rigveda – Shakala Samhita – Mandala 01 Sukta 119
A
A+
१० कक्षीवान् दैर्घतमस औशिजः। अश्विनौ। जगती।
आ वां॒ रथं॑ पुरुमा॒यं म॑नो॒जुवं॑ जी॒राश्वं॑ य॒ज्ञियं॑ जी॒वसे॑ हुवे ।
स॒हस्र॑केतुं व॒निनं॑ श॒तद्व॑सुं श्रुष्टी॒वानं॑ वरिवो॒धाम॒भि प्रय॑: ॥१॥
ऊ॒र्ध्वा धी॒तिः प्रत्य॑स्य॒ प्रया॑म॒न्यधा॑यि॒ शस्म॒न्त्सम॑यन्त॒ आ दिश॑: ।
स्वदा॑मि घ॒र्मं प्रति॑ यन्त्यू॒तय॒ आ वा॑मू॒र्जानी॒ रथ॑मश्विनारुहत् ॥२॥
सं यन्मि॒थः प॑स्पृधा॒नासो॒ अग्म॑त शु॒भे म॒खा अमि॑ता जा॒यवो॒ रणे॑ ।
यु॒वोरह॑ प्रव॒णे चे॑किते॒ रथो॒ यद॑श्विना॒ वह॑थः सू॒रिमा वर॑म् ॥३॥
यु॒वं भु॒ज्युं भु॒रमा॑णं॒ विभि॑र्ग॒तं स्वयु॑क्तिभिर्नि॒वह॑न्ता पि॒तृभ्य॒ आ ।
या॒सि॒ष्टं व॒र्तिर्वृ॑षणा विजे॒न्यं१ दिवो॑दासाय॒ महि॑ चेति वा॒मव॑: ॥४॥
यु॒वोर॑श्विना॒ वपु॑षे युवा॒युजं॒ रथं॒ वाणी॑ येमतुरस्य॒ शर्ध्य॑म् ।
आ वां॑ पति॒त्वं स॒ख्याय॑ ज॒ग्मुषी॒ योषा॑वृणीत॒ जेन्या॑ यु॒वां पती॑ ॥५॥
यु॒वं रे॒भं परि॑षूतेरुरुष्यथो हि॒मेन॑ घ॒र्मं परि॑तप्त॒मत्र॑ये ।
यु॒वं श॒योर॑व॒सं पि॑प्यथु॒र्गवि॒ प्र दी॒र्घेण॒ वन्द॑नस्ता॒र्यायु॑षा ॥६॥
यु॒वं वन्द॑नं॒ निर्ऋ॑तं जर॒ण्यया॒ रथं॒ न द॑स्रा कर॒णा समि॑न्वथः ।
क्षेत्रा॒दा विप्रं॑ जनथो विप॒न्यया॒ प्र वा॒मत्र॑ विध॒ते दं॒सना॑ भुवत् ॥७॥
अग॑च्छतं॒ कृप॑माणं परा॒वति॑ पि॒तुः स्वस्य॒ त्यज॑सा॒ निबा॑धितम् ।
स्व॑र्वतीरि॒त ऊ॒तीर्यु॒वोरह॑ चि॒त्रा अ॒भीके॑ अभवन्न॒भिष्ट॑यः ॥८॥
उ॒त स्या वां॒ मधु॑म॒न्मक्षि॑कारप॒न्मदे॒ सोम॑स्यौशि॒जो हु॑वन्यति ।
यु॒वं द॑धी॒चो मन॒ आ वि॑वास॒थो ऽथा॒ शिर॒: प्रति॑ वा॒मश्व्यं॑ वदत् ॥९॥
यु॒वं पे॒दवे॑ पुरु॒वार॑मश्विना स्पृ॒धां श्वे॒तं त॑रु॒तारं॑ दुवस्यथः ।
शर्यै॑र॒भिद्युं॒ पृत॑नासु दु॒ष्टरं॑ च॒र्कृत्य॒मिन्द्र॑मिव चर्षणी॒सह॑म् ॥१०॥
आ वां॒ रथं॑ पुरुमा॒यं म॑नो॒जुवं॑ जी॒राश्वं॑ य॒ज्ञियं॑ जी॒वसे॑ हुवे ।
स॒हस्र॑केतुं व॒निनं॑ श॒तद्व॑सुं श्रुष्टी॒वानं॑ वरिवो॒धाम॒भि प्रय॑: ॥१॥
ऊ॒र्ध्वा धी॒तिः प्रत्य॑स्य॒ प्रया॑म॒न्यधा॑यि॒ शस्म॒न्त्सम॑यन्त॒ आ दिश॑: ।
स्वदा॑मि घ॒र्मं प्रति॑ यन्त्यू॒तय॒ आ वा॑मू॒र्जानी॒ रथ॑मश्विनारुहत् ॥२॥
सं यन्मि॒थः प॑स्पृधा॒नासो॒ अग्म॑त शु॒भे म॒खा अमि॑ता जा॒यवो॒ रणे॑ ।
यु॒वोरह॑ प्रव॒णे चे॑किते॒ रथो॒ यद॑श्विना॒ वह॑थः सू॒रिमा वर॑म् ॥३॥
यु॒वं भु॒ज्युं भु॒रमा॑णं॒ विभि॑र्ग॒तं स्वयु॑क्तिभिर्नि॒वह॑न्ता पि॒तृभ्य॒ आ ।
या॒सि॒ष्टं व॒र्तिर्वृ॑षणा विजे॒न्यं१ दिवो॑दासाय॒ महि॑ चेति वा॒मव॑: ॥४॥
यु॒वोर॑श्विना॒ वपु॑षे युवा॒युजं॒ रथं॒ वाणी॑ येमतुरस्य॒ शर्ध्य॑म् ।
आ वां॑ पति॒त्वं स॒ख्याय॑ ज॒ग्मुषी॒ योषा॑वृणीत॒ जेन्या॑ यु॒वां पती॑ ॥५॥
यु॒वं रे॒भं परि॑षूतेरुरुष्यथो हि॒मेन॑ घ॒र्मं परि॑तप्त॒मत्र॑ये ।
यु॒वं श॒योर॑व॒सं पि॑प्यथु॒र्गवि॒ प्र दी॒र्घेण॒ वन्द॑नस्ता॒र्यायु॑षा ॥६॥
यु॒वं वन्द॑नं॒ निर्ऋ॑तं जर॒ण्यया॒ रथं॒ न द॑स्रा कर॒णा समि॑न्वथः ।
क्षेत्रा॒दा विप्रं॑ जनथो विप॒न्यया॒ प्र वा॒मत्र॑ विध॒ते दं॒सना॑ भुवत् ॥७॥
अग॑च्छतं॒ कृप॑माणं परा॒वति॑ पि॒तुः स्वस्य॒ त्यज॑सा॒ निबा॑धितम् ।
स्व॑र्वतीरि॒त ऊ॒तीर्यु॒वोरह॑ चि॒त्रा अ॒भीके॑ अभवन्न॒भिष्ट॑यः ॥८॥
उ॒त स्या वां॒ मधु॑म॒न्मक्षि॑कारप॒न्मदे॒ सोम॑स्यौशि॒जो हु॑वन्यति ।
यु॒वं द॑धी॒चो मन॒ आ वि॑वास॒थो ऽथा॒ शिर॒: प्रति॑ वा॒मश्व्यं॑ वदत् ॥९॥
यु॒वं पे॒दवे॑ पुरु॒वार॑मश्विना स्पृ॒धां श्वे॒तं त॑रु॒तारं॑ दुवस्यथः ।
शर्यै॑र॒भिद्युं॒ पृत॑नासु दु॒ष्टरं॑ च॒र्कृत्य॒मिन्द्र॑मिव चर्षणी॒सह॑म् ॥१०॥