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Rigveda – Shakala Samhita – Mandala 01 Sukta 095
A
A+
११ कुत्स आङ्गिरसः। अग्निः, औषसोऽग्निर्वा । त्रिष्टुप्
द्वे विरू॑पे चरत॒: स्वर्थे॑ अ॒न्यान्या॑ व॒त्समुप॑ धापयेते ।
हरि॑र॒न्यस्यां॒ भव॑ति स्व॒धावा॑ञ् छु॒क्रो अ॒न्यस्यां॑ ददृशे सु॒वर्चा॑: ॥१॥
दशे॒मं त्वष्टु॑र्जनयन्त॒ गर्भ॒मत॑न्द्रासो युव॒तयो॒ विभृ॑त्रम् ।
ति॒ग्मानी॑कं॒ स्वय॑शसं॒ जने॑षु वि॒रोच॑मानं॒ परि॑ षीं नयन्ति ॥२॥
त्रीणि॒ जाना॒ परि॑ भूषन्त्यस्य समु॒द्र एकं॑ दि॒व्येक॑म॒प्सु ।
पूर्वा॒मनु॒ प्र दिशं॒ पार्थि॑वानामृ॒तून् प्र॒शास॒द् वि द॑धावनु॒ष्ठु ॥३॥
क इ॒मं वो॑ नि॒ण्यमा चि॑केत व॒त्सो मा॒तॄर्ज॑नयत स्व॒धाभि॑: ।
ब॒ह्वी॒नां गर्भो॑ अ॒पसा॑मु॒पस्था॑न्म॒हान् क॒विर्निश्च॑रति स्व॒धावा॑न् ॥४॥
आ॒विष्ट्यो॑ वर्धते॒ चारु॑रासु जि॒ह्माना॑मू॒र्ध्वः स्वय॑शा उ॒पस्थे॑ ।
उ॒भे त्वष्टु॑र्बिभ्यतु॒र्जाय॑मानात् प्रती॒ची सिं॒हं प्रति॑ जोषयेते ॥५॥
उ॒भे भ॒द्रे जो॑षयेते॒ न मेने॒ गावो॒ न वा॒श्रा उप॑ तस्थु॒रेवै॑: ।
स दक्षा॑णां॒ दक्ष॑पतिर्बभूवा॒ञ्जन्ति॒ यं द॑क्षिण॒तो ह॒विर्भि॑: ॥६॥
उद् यं॑यमीति सवि॒तेव॑ बा॒हू उ॒भे सिचौ॑ यतते भी॒म ऋ॒ञ्जन् ।
उच्छु॒क्रमत्क॑मजते सि॒मस्मा॒न्नवा॑ मा॒तृभ्यो॒ वस॑ना जहाति ॥७॥
त्वे॒षं रू॒पं कृ॑णुत॒ उत्त॑रं॒ यत् सं॑पृञ्चा॒नः सद॑ने॒ गोभि॑र॒द्भिः ।
क॒विर्बु॒ध्नं परि॑ मर्मृज्यते॒ धीः सा दे॒वता॑ता॒ समि॑तिर्बभूव ॥८॥
उ॒रु ते॒ ज्रय॒: पर्ये॑ति बु॒ध्नं वि॒रोच॑मानं महि॒षस्य॒ धाम॑ ।
विश्वे॑भिरग्ने॒ स्वय॑शोभिरि॒द्धो ऽद॑ब्धेभिः पा॒युभि॑: पाह्य॒स्मान् ॥९॥
धन्व॒न्त्स्रोत॑: कृणुते गा॒तुमू॒र्मिं शु॒क्रैरू॒र्मिभि॑र॒भि न॑क्षति॒ क्षाम् ।
विश्वा॒ सना॑नि ज॒ठरे॑षु धत्ते॒ ऽन्तर्नवा॑सु चरति प्र॒सूषु॑ ॥१०॥
ए॒वा नो॑ अग्ने स॒मिधा॑ वृधा॒नो रे॒वत् पा॑वक॒ श्रव॑से॒ वि भा॑हि ।
तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥११॥
द्वे विरू॑पे चरत॒: स्वर्थे॑ अ॒न्यान्या॑ व॒त्समुप॑ धापयेते ।
हरि॑र॒न्यस्यां॒ भव॑ति स्व॒धावा॑ञ् छु॒क्रो अ॒न्यस्यां॑ ददृशे सु॒वर्चा॑: ॥१॥
दशे॒मं त्वष्टु॑र्जनयन्त॒ गर्भ॒मत॑न्द्रासो युव॒तयो॒ विभृ॑त्रम् ।
ति॒ग्मानी॑कं॒ स्वय॑शसं॒ जने॑षु वि॒रोच॑मानं॒ परि॑ षीं नयन्ति ॥२॥
त्रीणि॒ जाना॒ परि॑ भूषन्त्यस्य समु॒द्र एकं॑ दि॒व्येक॑म॒प्सु ।
पूर्वा॒मनु॒ प्र दिशं॒ पार्थि॑वानामृ॒तून् प्र॒शास॒द् वि द॑धावनु॒ष्ठु ॥३॥
क इ॒मं वो॑ नि॒ण्यमा चि॑केत व॒त्सो मा॒तॄर्ज॑नयत स्व॒धाभि॑: ।
ब॒ह्वी॒नां गर्भो॑ अ॒पसा॑मु॒पस्था॑न्म॒हान् क॒विर्निश्च॑रति स्व॒धावा॑न् ॥४॥
आ॒विष्ट्यो॑ वर्धते॒ चारु॑रासु जि॒ह्माना॑मू॒र्ध्वः स्वय॑शा उ॒पस्थे॑ ।
उ॒भे त्वष्टु॑र्बिभ्यतु॒र्जाय॑मानात् प्रती॒ची सिं॒हं प्रति॑ जोषयेते ॥५॥
उ॒भे भ॒द्रे जो॑षयेते॒ न मेने॒ गावो॒ न वा॒श्रा उप॑ तस्थु॒रेवै॑: ।
स दक्षा॑णां॒ दक्ष॑पतिर्बभूवा॒ञ्जन्ति॒ यं द॑क्षिण॒तो ह॒विर्भि॑: ॥६॥
उद् यं॑यमीति सवि॒तेव॑ बा॒हू उ॒भे सिचौ॑ यतते भी॒म ऋ॒ञ्जन् ।
उच्छु॒क्रमत्क॑मजते सि॒मस्मा॒न्नवा॑ मा॒तृभ्यो॒ वस॑ना जहाति ॥७॥
त्वे॒षं रू॒पं कृ॑णुत॒ उत्त॑रं॒ यत् सं॑पृञ्चा॒नः सद॑ने॒ गोभि॑र॒द्भिः ।
क॒विर्बु॒ध्नं परि॑ मर्मृज्यते॒ धीः सा दे॒वता॑ता॒ समि॑तिर्बभूव ॥८॥
उ॒रु ते॒ ज्रय॒: पर्ये॑ति बु॒ध्नं वि॒रोच॑मानं महि॒षस्य॒ धाम॑ ।
विश्वे॑भिरग्ने॒ स्वय॑शोभिरि॒द्धो ऽद॑ब्धेभिः पा॒युभि॑: पाह्य॒स्मान् ॥९॥
धन्व॒न्त्स्रोत॑: कृणुते गा॒तुमू॒र्मिं शु॒क्रैरू॒र्मिभि॑र॒भि न॑क्षति॒ क्षाम् ।
विश्वा॒ सना॑नि ज॒ठरे॑षु धत्ते॒ ऽन्तर्नवा॑सु चरति प्र॒सूषु॑ ॥१०॥
ए॒वा नो॑ अग्ने स॒मिधा॑ वृधा॒नो रे॒वत् पा॑वक॒ श्रव॑से॒ वि भा॑हि ।
तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥११॥