Rituals – प्रमुख वैदिक यज्ञोंका क्रम एवं उनका संक्षिप्त विवरण

सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति ‘‘यज्ञ-दान और तप’’ इन तीन शब्दोंमें समाहित है[1]। इनमें भी यज्ञ का विशिष्ट महत्त्व है। इसीलिए छान्दोग्योपनिषद् में धर्मके तीन आधरस्तम्भोंमें जो पहला आधरस्तम्भ है, उसमें भी यज्ञका स्थान सर्वप्रथम है[2]

वैदिक आर्ष सम्प्रदायमें यज्ञका जो मुख्य अर्थ है, उसका उल्लेख कात्यायन ने अपने श्रौतसूत्रमें किया है, यथा – देवताके उद्देश्यसे द्रव्यका त्याग ही यज्ञ है[3]। देवतासे तात्पर्य अग्नि-इन्द्रादि देवता, द्रव्यसे तात्पर्य दही, चावल, जौं तथा सोम इत्यादि तथा त्यागसे तात्पर्य है – उन देवताओंके उद्देश्यसे किया जाने वाला ऐसा व्यापार जिसमें अपने स्वत्वकी निवृत्ति हो[4]

इन यज्ञोंके मुख्यतया दो विभाग हैं – 1. श्रौत तथा 2. स्मार्त्त। श्रुतिप्रतिपादित यज्ञोंको श्रौतयज्ञ तथा स्मृतिप्रतिपादित यज्ञोंको स्मार्त्त यज्ञ कहते हैं। श्रौतयज्ञोंमें केवल श्रुतिप्रतिपादित मन्त्रोंका प्रयोग होता है तथा स्मार्त्त यज्ञोंमें वैदिक, पौराणिक तथा तान्त्रिक मन्त्रोंका प्रयोग होता है।

स्मृतियोंमें तथा गृह्यसूत्रोंमें औपासनहोम, वैश्वदेव, पार्णव, अष्टका, मासिश्राद्ध, श्रवणा तथा शूलगव इन सात यज्ञोंका वर्णन किया गया है, अतः ये स्मार्त्त यज्ञ हैं। इन्हीं को पाकयज्ञ भी कहते हैं। वैवाहिक चतुर्थी होमके अनन्तर विधिपूर्वक सम्पादित अग्निको ही स्मार्त्ताग्नि कहते हैं। इसी अग्निमें औपासनहोम, वैश्वदेव आदि स्मार्त्त यज्ञोंका अनुष्ठान किया जाता है।

श्रौतयज्ञोंमें सात यज्ञ हविर्यज्ञ हैं तथा सात यज्ञ सोमयज्ञ हैं। हविर्यज्ञ इस प्रकार है, यथा- अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास, आग्रयण, चातुर्मास्य, निरूढपशुबन्ध, सौत्रामणी तथा पिण्डपितृयज्ञ। इसी प्रकार सात सोमयाग इस प्रकार हैं, यथा – अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र तथा आप्तोर्याम[5]

संक्षेपमें यदि कहा जाए तो कुल 21 यज्ञोंमें औपासन होम आदि सात यज्ञ स्मार्त्तयज्ञ तथा शेष चौदह यज्ञ श्रौतयज्ञ। इन चौदहों यज्ञों में सात यज्ञ हविर्यज्ञ जो अग्निहोत्रादि हैं तथा शेष अग्निष्टोमादि सात श्रौतयज्ञ सोम यज्ञ हैं।

जिन यज्ञोंमें चावल – जौं आदिकी आहुति दी जाती हैं, वे हविर्यज्ञ हैं तथा जिन यज्ञोंमें सोमकी आहुति दी जाती है, उन्हें सोमयज्ञ कहते हैं।

जिस प्रकार स्मार्त्तयज्ञोंके लिए स्मार्त्ताग्नि की स्थापना की जाती है, उसी प्रकार श्रौतयज्ञोंके लिए श्रौताग्नि की स्थापना की जाती है। ये श्रौताग्नि मुख रूपसे तीन हैं, यथा – गार्हपत्य, आहवनीय तथा दक्षिणाग्नि। इन्हीं तीन अग्नियोंमें समस्त श्रौतयज्ञोंका अनुष्ठान किया जाता है अर्थात् अग्निहोत्र आदि सात हविर्यज्ञोंका भी अनुष्ठान तथा अग्निष्टोमादि सात सोमयागोंका भी अनुष्ठान।

अब क्रमशः एक-एक करके श्रौतयज्ञोंका संक्षिप्त विवेचन किया जाता है। श्रौतयज्ञोंमें सबसे पहले अग्निहोत्रका नाम आता है। अग्निको उद्देश्य करके सायं तथा प्रातः जो होम किया जाता है, उसे अग्निहोत्र कहते हैं। दूध ही इस यज्ञका द्रव्य है। यदि काम्य अग्निहोत्र किया जाता है, तब कामनानुसार तैल, दही, दूध, सोम, चावल, घी, फल, जल आदि अग्निहोत्रके द्रव्य होते हैं।[6]

इस सायंकाल अग्निहोत्रके मुख्य देवता अग्नि तथा अङ्गदेवता प्रजापति तथा प्रातः अग्निहोत्रके मुख्य देवता सूर्य तथा प्रजापति अङ्गदेवता होते हैं।

यह अग्निहोत्र यजमानके द्वारा ही किया जाता है। तैत्तिरीय संहिताके अनुसार यदि यजमान न कर सके तो एक ऋत्विज अर्थात् अध्वर्युके द्वारा भी यजमानके अग्निहोत्रको किया जा सकता है[7]

अग्निहोत्र सायं एवं प्रातः प्रतिदिन किया जाता है। इसके पश्चात् दर्शपौर्णमासेष्टिका उल्लेख किया गया है जो प्रत्येक 15दिनके बाद की जाती है। दर्श आमावास्याको कहते हैं अतः दर्शेष्टि आमावास्याको तथा पौर्णमासेष्टि पूर्णिमाको की जाती है।

दर्शेष्टिमें तीन याग किए जाते हैं, यथा – आग्नेय पुरोडाश, इन्द्रदेवताक दधिद्रव्यक याग तथा इन्द्रदेवताक पयोद्रव्यक याग। इसी प्रकार पौर्णमासेष्टिमें आग्नेय अष्टाकपाल पुरोडाशयाग, आज्यद्रव्यक अग्निषोमीय उपांशु याग तथा अग्नीषोमीय एकादश कपाल पुरोडाशयाग। इस प्रकार कुल 6 याग किए जाते हैं।

यह दर्शपौर्णमासेष्टि समस्त काम्य इष्टियोंकी प्रकृति है[8]। इस दर्शपौर्णमासेष्टि का अनुष्ठान यजमान अपनी पत्नीके साथ करता है तथा सहायकके रूपमें अध्वर्यु, ब्रह्मा, होता तथा आग्नीध्र ये चार ऋत्विज होते हैं[9]

खेतोंसे नया-नया अन्न आनेके समय आग्रयणेष्टि[10] की जाती है। शरद ऋतुमें तथा वसन्त ऋतुमें यह इष्टि की जाती है। नया चावल अथवा जौं इस इष्टि का प्रधान द्रव्य है, जो इन्द्राग्नी तथा द्यावापृथिवी इन दोनों देवताओं के लिए होता है। टूटे हुए जिस रथ की मरम्मत की गई है, वह रथ इस इष्टि की दक्षिणा होती है। इसके अतिरिक्त रेशमी वस्त्र, मधुपर्क तथा वर्षामें पहना हुआ वस्त्र दक्षिणाके रूपमें दिया जाता है।

इसको किए जानेके बाद ही याज्ञिकों द्वारा नये अन्नका प्रयोग किया जाता है।

[show_more more=”Read More” less=”Read Less”]

प्रत्येक चौथे महीने जो याग किया जाता है, उसका नाम चातुर्मास्य है। इसमें चार पर्व हैं, यथा – वैश्वदेव पर्व, वरुणप्रघास पर्व, साकमेध पर्व तथा शुनासारीय। पहला पर्व वैश्वदेव[11] फाल्गुन मासकी पूर्णिमाको किया जाता है। अग्नि, सोम, सविता, सरस्वती,पूषा, मरुत्, स्वतवान् तथा द्यावापृथिवी ये वैश्वदेव पर्वके देवता हैं। पुरोडाश, चरु, पयस्या, सोम ये द्रव्य हैं, जिनकी आहुति दी जाती है। इसका फल भी है। सन्तति के उद्देश्यसे वैश्वदेवपर्व का अनुष्ठान किया जाता है[12]

आषाढमासकी पूर्णिमाको वरुणप्रघासपर्व[13] का अनुष्ठान किया जाता है। इसमें दो वेदी बनाई जाती है, एक उत्तरवेदी तथा दूसरी दक्षिणवेदी। अध्वर्यु उत्तरवेदीपर अनुष्ठान करता है तथा प्रतिप्रस्थाता दक्षिणवेदीपर कार्य करता है।

वरुणप्रघासपर्वके लिए करम्भ पात्रका निर्माण किया जाता है तथा उसके लिए एक होम भी होता है। यह करम्भ पात्र गोल,दीपककी आकृतिका तथा जौं से बनाया जाता है[14]। चतुर्दशीके दिन अध्वर्यु के द्वारा चार करम्भ पात्र बनाए जाते हैं।

पूर्णिमाके दिन अध्वर्यु मेष तथा प्रतिप्रस्थाता मेषी बनाता है। धेनु, अश्व तथा छह अथवा बारह गौवें दक्षिणामें दी जाती है।

वरुणपाश, जलोदर रोग तथा वात रोगसे मुक्तिके लिए वरुणप्रघास पर्वका अनुष्ठान किया जाता है।

अग्नि, सोम, इन्द्राग्नी तथा वरुण इसके देवता हैं, जिनके लिए पुरोडाश, चरु तथा पयस्या की आहुति दी जाती है।

कार्त्तिक माहकी पूर्णिमाको साकमेध[15] पर्वका अनुष्ठान किया जाता है। यह दो दिनमें पूरा होता। चतुर्दशी से इसका अनुष्ठान प्रारम्भ होता है। इसमें अनीकवतीष्टि, सान्तपनीयेष्टि, गृहमेधीयेष्टि, दर्वी होम, क्रीडनीयेष्टि, अदितीष्टि, महाहवि, पित्रयेष्टि तथा त्रयम्बकेष्टि आदि अनुष्ठान किए जाते हैं।

अग्नि, मरुत्, अदिति, ऐन्द्राग्न, विश्वकर्मा, त्रयम्बक तथा पितर आदि देवता इस पर्वमें होते हैं जिनके लिए चरु, सान्नाय्य,आज्य, धना आदिकी आहुति दी जाती है।

घरमें जो कन्याएँ विवाहके योग्य होती हैं, उनके विवाहके लिए साकमेधपर्वका अनुष्ठान किया जाता है।

साकमेधके तुरन्त बाद शुनासीरीय पर्वका अनुष्ठान किया जाता है। वायु और आदित्य ये दो देवता इस पर्वमें होते हैं, अतः इस पर्वका नाम शुनासीरीय है[16]। वैश्वदेवपर्वके समान यहाँ भी पाँच हवि दी जाती हैं। इसके अतिरिक्त शुनासीर के लिए द्वादशकपाल, वायुके लिए दूध तथा सूर्यके लिए एक कपाल पुरोडाश। इसकी दक्षिणा 6 बैलोंसे युक्त हल अथवा दो बैल। इसके अतिरिक्त सूर्यके लिए सफेद घोड़ा अथवा गाय दक्षिणाके रूपमें दी जाती है।

चातुर्मास्य यज्ञके बाद निरूढपशुबन्ध्याग किया जाता है, जिसके ऐन्द्राग्न सूर्य मुख्य देवता हैं तथा एकादशकपाल पुरोडाश की आहुति दी जाती है। इसका अनुष्ठान वर्षमें एक या दो बार श्रावण अथवा भाद्रपद माहमें किया जाता है। इस यज्ञके अनुष्ठानके लिए अध्वर्यु, होता, मैत्रावरुण तथा प्रतिप्रस्थाताका वरण किया जाता है। दक्षिणाके रूपमें यजमान ऋत्विजों को हिरण्य तथा पूर्णपात्र देता है।

इन्द्र देवताके लिए सौत्रामणी याग किया जाता है। इस यज्ञके लिए अध्वर्यु, ब्रह्मा, होता, आग्नीध्र, प्रतिप्रस्थाता तथा मैत्रावरुण ये छह ऋत्विज होते हैं।

ऋद्धिकी कामनासे ब्राह्मणोंके द्वारा सौत्रामणी यज्ञ विशेष रूपसे किया जाता है। स्वराज्य की प्राप्तिके लिए क्षत्रियोंके द्वारा भी सौत्रामणी यज्ञ करनेका विधना प्राप्त होता है। यह यज्ञ चार दिन तक चलता है तथा विशेष प्रकारका आसव बनाया जाता है,जिसकी आहुति दी जाती है। बछड़ेके सहित गाय इस यज्ञकी दक्षिणा होती है।

इस यज्ञमें वाजपेय तथा राजसूयके समान यजमान का तीर्थों, नदियों तथा समुद्रोंके जलसे अभिषेक किया जाता है।

पितरोंके लिए पिण्डपितृयज्ञ किया जाता है। दर्शेष्टिका अङ्ग होनेसे यह अमावास्याको दर्शेष्टिसे पहले ही किया जाता है। दक्षिणाग्निमें चरु पकाया जाता है। पितरोंके लिए पिण्डदान होता है तथा छह बार हाथ जोड़कर पितरोंको प्रणाम किया जाता है।

पाकयज्ञके अतिरिक्त श्रौतयागोंमें जिन अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास, आग्रयण, चातुर्मास्य, निरूढपशुबन्ध, सौत्रामणी तथा पिण्डपितृयज्ञ का उल्लेख गौतम धर्मसूत्रमें किया गया, उनके बारमें संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया गया। 21 यज्ञोंमें 14 यज्ञोंकी बात हो चुकी। शेष 7 यज्ञ रह जाते हैं, जो सोमयागकी श्रेणीमें आते हैं। इन सात सोमयागोंके नाम इस प्रकार हैं, यथा – अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र तथा अप्तोर्याम। इन सातों सोमयागोंमें अग्निष्टोम सबसे प्रथम आता है।

प्रजापति ने प्रजा उत्पन्न करनेकी इच्छासे बहुत होनेकी कामना की और ऐसी कामना करते हुए ही उसने प्रजननसाधनरूप अग्निष्टोमका दर्शन किया। इसके पश्चात् उसने दृश्यमान यह सारी सृष्टि उत्पन्न की[17]

इसके अतिरिक्त पुराणोंमें भी अग्निष्टोमकी उत्पत्ति का उल्लेख मिलता है[18]। कालिका पुराणके अनुसार यज्ञ-वराहके उठे हुए कपोलसे लेकर कर्णमूल तकके भागसे अग्निष्टोमकी उत्पत्ति हुई[19]। शतपथ ब्राह्मणकी एक आख्यायिकाके अनुसार देवताओंने तपस्या करके अग्निष्टोम का विधान प्राप्त किया, जिसके द्वारा उन्होंने असुरों का विरोध् किया[20]

ऐतरेय ब्राह्मणके अनुसार अग्निष्टोम साक्षात् अग्नि ही है। उस क्रतुरूप अग्निकी देवोंने स्तोमोंके द्वारा स्तुति की, इसलिए उसका नाम “अग्निस्तोम” हुआ। अग्निस्तोम होते हुए उस नामसे युक्त क्रतु को परोक्ष रूपमें व्यवहार करनेके लिए वैदिक लोगोंने सकार को षकारमें, तकारको टकारमें बदलकर उसको “अग्निष्टोम” कहना प्रारम्भ किया। अतः “अग्निस्तोम” “अग्निष्टोम” कहलाने लगा[21]

अग्निष्टोम नामक “यज्ञायज्ञीय” सामका गायन सबसे अन्तमें किया जाता है, इसीलिए इसका नाम अग्निष्टोम हुआ[22]

अग्निष्टोम का अनुष्ठान सत्रह ऋत्विजों के द्वारा सम्पन्न होता है। सत्रहवाँ ऋत्विज स्वयं यजमान होता है, जो कि स्वयं यज्ञका स्वामी है[23]। यजमानातिरिक्त ये सोलहों ट्टत्विव्फ चार वर्गोंमें विभक्त किए गए हैं[24]

ताण्ड्य ब्राह्मणने दक्षिणामें दी जाने वाली 10 वस्तुओं का उल्लेख किया है[25]। इनमें गौओंकी संख्या 112 ही निश्चित की गई है[26]

कात्यायन ने निर्धरित 100 गौओंका वितरण यज्ञके सोलहों ऋत्विजोंमें इस प्रकार किया है-ब्रह्मा, उद्गाता, होता एवं अध्वर्यु को 12-12 गौवें, अर्ध्दिनः संज्ञक ऋत्विज ब्राह्मणाच्छंसि, प्रस्तोता, मैत्रावरुण एवं प्रतिप्रस्थाता के 6-6 गौवें, तृतीयिनः संज्ञक ऋत्विक् पोता, प्रतिहर्त्ता, अच्छावाक् तथा नेष्टा को 4-4 तथा पादिनः संज्ञक ऋत्विज् आग्नीध्र, सुब्रह्मण्य, ग्रावस्तुत तथा उन्नेता को 3-3 गौवें[27]

अग्निष्टोमके अन्तर्गत सवन कर्ममें गाए जाने वाले[28] स्तोत्रोंकी संख्या 12 एवं शंसन किए जाने वाले शस्त्रों[29] की भी संख्या 12 ही है।

प्रातः सवनमें त्रिवृत्स्तोमात्मक[30] बहिष्पवमानस्तोत्र[31] तथा पञ्चदशस्तोमात्मक[32] चार आज्य स्तोत्रों[33] का गायन किया जाता है। शस्त्रोंमें आज्यशस्त्र, प्रउग शस्त्र, मैत्रावरुण शस्त्र, ब्रह्मणाच्छंसिशस्त्र तथा अच्छावाक शस्त्रका शंसन किया जाता है।

माध्यन्दिन सवनमें पञ्चदशस्तोमात्मक माध्यन्दिन पवमान स्तोत्र तथा सप्तदशस्तोमात्मक[34] चार पृष्ठ स्तोत्रों[35] का गायन किया जाता है। शस्त्रोंमें मरुत्वतीय शस्त्र, निष्वेफवल्य, मैत्रावरुण, ब्राह्मणाच्छंसि तथा अच्छावाक शस्त्रका शंसन किया जाता है।

तृतीय सवनमें आर्भव पवमान[36] तथा अग्निष्टोम[37] स्तोत्र का गायन तथा वैश्वदेव एवं अग्निमारुत शस्त्रका शंसन किया जाता है।

जिस प्रकार हविर्यागोंकी प्रकृति दर्शपौर्णमासेष्टि है, उसी प्रकार समस्त सोमयागोंकी प्रकृति अग्निष्टोम यज्ञ है। उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र तथा अप्तोर्याम ये छहों सोमयाग, अग्निष्टोम की विकृति हैं।

उक्थ्य नामक सोमयागमें अग्निष्टोमके स्तोत्रों एवं शस्त्रोंके अतिरिक्त अन्य तीन स्तोत्र (उक्थ्य स्तोत्र) एवं शस्त्र (उक्थ्य शस्त्र)पाये जाते हैं। इस प्रकार सायंकालीन सोमरस निकालते समय गाये जाने वाले (स्तोत्र) एवं कहे जाने वाले शस्त्र कुल मिलाकर 15 होते हैं[38]। पशु, शक्ति, सन्ततिकी कामनासे उक्थ्य नामक सोमयोगका अनुष्ठान किया जाता है।

षोडशी यज्ञमें 15 स्तोत्रों एवं शस्त्रोंके अतिरिक्त एक अन्य स्तोत्र एवं शस्त्रका गायन एवं पाठ होता है, जिसे तृतीय सवनमें षोडशीके नामसे पुकारा जाता है। इसकी दक्षिणा लोहित-पिंगल घोड़ा या मादा खच्चर होती है[39]

अतिरात्रका नाम ऋग्वेद (7.103.7) में भी आया है। यह एक दिन और रात्रिमें होता है। अतिरात्रमें 29 स्तोत्र और 29 शस्त्र होते हैं। इसमें आश्विन नामक शस्त्र गाये जाते हैं किन्तु इसके पूर्व रात्रिमें 6 आहुतियाँ दी जाती हैं। ऐब्रा॰ (14.3, 16.5-7), आश्वश्रौसू॰ (6.4-5), सत्याषाढ (9.7) तथा आपस्तम्ब (15.3.8-14.4.11) में अतिरात्रके कर्मकाण्डका विस्तारपूर्वक निरूपण किया गया है।

अप्तोर्याम अतिरात्रके ही सदृश है केवल अतिरात्रकी अपेक्षा विस्तृत है। इसमें चार अतिरिक्त स्तोत्र (कुल मिलाकर 33 स्तोत्र) और चार अतिरिक्त शस्त्र होता एवं उसके सहायकों द्वारा पढ़े जाते हैं। अग्नि, इन्द्र, विश्वेदेव और विष्णुके लिए क्रमसे एक एक अर्थात् कुल मिलाकर चार चमस होते हैं[40]। आश्वश्रौसू॰ (9.11.1) के मतसे यह यज्ञ उन लोगों द्वारा सम्पादित होता है, जिनके पशु जीवित नहीं रहते या जो अच्छी जातिके पशुके आकांक्षी होते हैं। अप्तोर्यामकी दक्षिणा सहस्त्रों गौवें होती है। होताको रजतजटित तथा गदहियोंसे खींचा जाने वाला रथ मिलता है। तांब्रा॰ 20.3.4-5) का कहना है कि इसका नाम अप्तोर्याम इसलिए पड़ा है क्योंकि इसके द्वारा अभिकांक्षित वस्तु प्राप्त होती हैं।

आध्पित्य (आश्वश्रौसू॰ 9.9.1) या समृद्धि (आपश्रौसू॰ 18.1.1) या स्वराज्य (निर्विरोध राज्य अथवा इन्द्रकी स्थिति) का अभिलाषी ही वाजपेयका अनुष्ठान करता है। इसमें षोडशीकी विधि पायी जाती है और यह ज्योतिष्टोमका ही रूप है किन्तु इसकी अपनी पृथक् विशेषताएँ हैं। अधिकांश पदार्थोंकी संख्या 17 है, उदाहरणके लिए स्तोत्रों एवं शस्त्रोंकी संख्या 17 है। दक्षिणामें 17 वस्तुएँ दी जाती हैं। यूप 17 अरत्नियों वाला होता है। यूपमें जो परिधान बाँध जाता है, वह भी 17 टुकड़ों वाला होता है। 17 दिनों तक ही यह वाजपेय यज्ञ चलता है। प्रजापतिके लिए सुरा 17 पात्रोंमें भरी जाती है। सोमरस भी 17 पात्रोंसे ही भरा जाता है। 17 रथ होते हैं, जिनमें घोडे़ जोते जाते हैं तथा जिनकी दौड़ की जाती है। वेदीकी उत्तरी श्रोणीपर 17 ढोलकें रक्खी जाती हैं, जिन्हें बजाया जाता है[41]। वाजपेयका सम्पादन शरद् ऋतुमें किया जाता है। इसका सम्पादन केवल ब्राह्मण या क्षत्रिय ही कर सकता है, वैश्य नहीं (तैब्रा॰ 1.3.2, लाट्यायनश्रौसू॰ 8.11.1, काश्रौसू॰ 14.1.1 एवं आपश्रौसू॰ 18.1.1)। आश्वलायनका कहना है कि दक्षिणाके रूपमें 1700 गौएँ, 17 रथ (घोड़ों सहित), 17 घोडे़, पुरुषोंके चढ़ने योग्य 17 पशु, 17 बैल, 17 गाडि़याँ, सुनहरे परिधनों-झालरोंसे सजे हुए 17 हाथी दिए जाने चाहिए। ये वस्तुएँ पुरोहितोंमें बाँट दी जाती हैं। वाजपेयके पश्चात् राजा राजसूय यज्ञ करनेका अधिकारी होता है और ब्राह्मण बृहस्पतिसव[42] करनेका अधिकारी होता है (आश्वश्रौसू॰ 9.9.29)।

राजसूययज्ञ एक लम्बी अवधि तक चलने वाला यज्ञ है। यह यज्ञ केवल क्षत्रिय द्वारा ही किया जाता है। शब्रा॰ (9.3.4.8) में आया है कि राजसूय करनेसे व्यक्ति राजा होता है तथा वाजपेय करनेसे सम्राट् होता है। यहाँ एक ध्वनि अवश्य निकलती है कि राजसूयके ही पश्चात् वाजपेय किया जाता है क्योंकि सम्राट् की स्थिति राजाके पश्चात् है। राजसूय की समाप्तिके एक मास उपरान्त सौत्रामणि नामक इष्टि की जाती है। तैत्तिरीय संहिता (1.8.1-17), तैत्तिब्रा॰ (1.4.9-10), शब्रा॰ (5.2.3-5), ऐब्रा॰ (7.13 एवं 8),तांब्रा॰ (18.8-11), आपश्रौसू॰ (18.8.22), काश्रौसू॰ (15.1-9), आश्वश्रौसू॰ (9.3-4), लाट्याश्रौसू॰ (9.1-3), शांखाश्रौसू॰ (15.12), बौधश्रौसू॰ (12) में राजसूयका निरूपण विस्तारपूर्वक किया गया है।

सृष्टिके आदिकालसे स्मार्त्त एवं श्रौतयज्ञोंके अनुष्ठान की परम्परा अखण्डरूपसे चली आ रही है। अत्यन्त प्राचीनकालमें विशिष्ट जनोंने जिन श्रौतयज्ञोंका अनुष्ठान किया, उनका विस्तृत उल्लेख पुराणोंके माध्यमसे हमें प्राप्त होता है।

श्रीमद्भागवत पुराण को ही लें तो चतुर्थ स्कन्धके तीसरे अध्यायमें दक्षके द्वारा किए गए वाजपेय यज्ञ तथा बृहस्पतिसव नामके महायज्ञका वर्णन आता है। भागवत में आता है कि दक्षने ऐसा यज्ञोत्सव किया, जिसकी चर्चा आकाशमार्गसे जाते हुए देवताओंने की[43]। चतुर्थ स्कन्धके 19वें अध्यायमें पृथुके द्वारा किए जाने वाले 100 अश्वमेध् की दीक्षा लिए जानेका उल्लेख है[44]। जब पृथु 99 अश्वमेध् कर चुके तो यज्ञेश्वर भगवान् इन्द्रके सहित वहाँ उपस्थित हो गए[45]

महाराज नाभिके विषयमें जो लोकोक्ति प्रसिद्ध थी, उसका उल्लेख शुकदेव ने परीक्षितके सम्मुख इस प्रकार किया, यथा –

ब्रह्मण्योऽन्यः कुतो नाभेर्विप्रा मङ्गलपूजिताः।

यस्य बर्हिषि यज्ञेशं दर्शयामासुरोजसा।। भागपु॰ (5.4.7द्ध।

अर्थात् महाराज नाभिके समान ब्राह्मणभक्त कौन हो सकता है, जिनकी दक्षिणादिसे सन्तुष्ट होकर ब्राह्मणोंने अपने मन्त्रबलसे उन्हें यज्ञशालामें साक्षात् विष्णु भगवान् के दर्शन करा दिए।

अष्टम स्कन्धके 18वें अध्यायमें भगवान् वामन के उपनयन संस्कारका वर्णन हुआ है। इस अवसर पर कहा गया है कि जब भगवान् वामन ने सुना कि बलि बहुतसे अश्वमेधयज्ञ कर रहे हैं तो उन्होंने वहाँके लिए यात्रा की और नर्मदा नदीके उत्तर तटपर ‘‘भृगुकच्छ’’ नामक सुन्दर स्थानपर पहुँच गए[46]

जिन श्रौतयागोंका संक्षिप्त परिचय आपके सम्मुख दिया गया, उनका अनुष्ठान करने वाले वैदिक श्रौती सोमयाजी विद्वान् आज भी भारतवर्षमें हैं तथा अनेक वैदिक कुल-परिवारोंमें नित्य अनुष्ठानके रूपमें भगवान् अग्निदेवकी आराधना निरन्तर की जाती है।

[1]  तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसा नाशकेन।

[2]  त्रयो धर्मस्कन्धा यज्ञोऽध्ययनं दानमिति प्रथमः (छांउ॰ 2.23)।

[3]  द्रव्यं देवता त्यागः (काश्रौसू॰ 1.2.2)।

[4]  द्रव्यं दध्सिोमव्रीहियवादि, देवता अग्नीन्द्रादिः, त्यागः तदुद्देशेन क्रियमाणः स्वत्वनिवृत्यनुकूलो व्यापारः। इदमेव यागस्वरूपम् (काश्रौसू॰ सरलावृत्तिः 1.2.2)।

[5]  गौतमधर्मसूत्र (8.18)।

[6]  तैलं दधि पयः सोमो यवागूरोदनं घृतम्। तण्डुलाः फलमापश्च दश द्रव्याण्यकामतः।। (स्मार्त्तोल्लास)।

[7]  तस्यैतस्याग्निहोत्रस्य यज्ञक्रतोरेक ऋत्विक् (तैसं॰ 2.3.6)।

[8]  सर्वाङ्गोपदेशात् दर्शपूर्णमासयागौ प्रकृतिरित्युच्यते, इतरास्त्विष्टयो विकृतय इति। (सरलावृत्तिभूमिका पृष्ठसं॰ 34)। दर्शपूर्णमासाविष्टीनां प्रकृतिः (आपश्रौसू॰ 24.3.32)।

[9]  तस्माद्दर्शपौर्णमासयोर्यज्ञक्रतोश्चत्वार ऋत्विजः (तैसं॰ 2.3.6)।

[10]  अग्रे नवान्नोत्पत्यनन्तरमयनमाचरणं यस्य तदाग्रयणनम्। (सरलावृत्ति भूमिका, पृष्ठसं॰ 40)।

[11]  विश्वे देवा अपश्यन् यत् पूर्वं तद्वैश्वदेवं पर्व।

[12]  प्रजाकामस्यापि वैश्वदेवम् (काश्रौसू॰ 5.2.20)।

[13]  प्रकृष्टो घासो भक्ष्यविशेषो येषु हविर्विशेषु ते प्रघासाः। वरुणमुद्दिश्य प्रघासाः वरुणप्रघासाः।

[14]  दीपपात्रसदृशानि भवपिष्टनिर्मितानि पात्राणि करम्भपात्राणि।

[15]  साकमेधन्ते बर्ध्दन्ते देवता एभिर्हविर्विशेषैः इति साकमेधाः।

[16]  शुनो वायुः सीर आदित्यः, तौ देवते अस्येति शुनासीरं पर्व। (सरलावृत्ति भूमिका, पृष्ठसं॰ 36)।

[17]  ‘‘प्रजापतिरकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति स एतमग्निष्टोममपश्यत्तमाहरत्तेनेमाः प्रजा असृजत (तांब्रा॰ 6.1.1)।

[18]  गायत्रं च ऋचश्चैव त्रिवृत्स्तोमं रथन्तरम्। अग्निष्टोमं च यज्ञानां निर्ममे प्रथमान्मुखात्।। (विष्णु पु॰ 1.5.52, द्र॰ मार्कण्डेय पु॰ 45.31, ब्रह्माण्ड पु॰ 1.8.50)।

[19]  कालिका पुराण – अध्याय 30

[20] ‘‘ततो देवाः अर्चन्तः श्राम्यन्तश्चेरुस्तऽएतदग्निष्टोमसद्यं ददृशुस्तऽएतेनाग्निष्टोमसद्येन सर्वं यज्ञ … समवृञ्जन्तान्तरायन्नसुरान्यज्ञात्तथो’’ (शतपथ ब्राह्मण 4.2.4.12)।

[21] “स वा एषोऽग्निरेव यदग्निष्टोमस्तं यदस्तुवंस्तस्मादग्निस्तोमस्तमग्निस्तोमं सन्तमग्निष्टोम इत्याचक्षते परोक्षेण परोक्षप्रिया इव हि देवा” (ऐब्रा॰ 3.14.5)।

[22]  “ज्ञायज्ञीय इत्यस्यामाग्नेय्यामुत्पन्नेनाग्निष्टोमसाम्ना समाप्तेरस्याग्निष्टोम इति नाम सम्पन्नम्” (ताण्ड्य ब्राह्मण 6.1.1 पर सायण भाष्य)। “अग्निष्टोमः सः, यो हि अग्निष्टोमस्तोत्रो ; (यज्ञायज्ञीये) समाप्यते” (जैमिनीय न्यायमाला विस्तर 1.6.16.42)।

[23]  “स्वामिसप्तदशाः कर्मसामान्यात्” (जैमिनि 3.7.18.38)।

[24]  अध्वयुवर्ग, ब्रह्मवर्ग, होतृवर्ग एवं उद्गातृवर्ग।

[25]  “गौश्च अश्वश्च अश्वतरश्च गर्दभाश्च अजाश्च अवयश्च व्रीहयश्च तिलाश्च माषाश्च” (तांब्रा॰ 16.1.10)।

[26]  “दक्षिणायाः द्वादशशतगोरूपायाः विभज्य दानं ज्योतिष्टोमे” (विस्तर, 10.3047)।

[27]  “यथारम्भं द्वादश द्वादशाद्येभ्यः षड् षड् द्वितीयेभ्यश्चतस्त्रश्चतस्त्रस्तृतीयेभ्यस्तिस्त्रस्तिस्त्र इतरेभ्यः” (काश्रौ॰ 10. 2.24)।

[28]  “स्तोत्रं च उद्गातृपुरुषैस्त्रिाभिः क्रियमाणः सामगान विशेषः” (काश्रौ॰ 9.13.29 पर सरलावृत्ति)।
[29] “होत्रा ट्टग्वेदमन्त्रेः क्रियमाणं देवतानिष्ठागुणाभिधानं शस्त्रं शंसनं चोच्यते” (काश्रौ॰ 10.308 पर सरलावृत्तिकी टिप्पणी)।

[30] “त्रिवृतं त्रिवारमावृत्तित्रयसाध्यमेतन्नामकं स्तोमम्” (तांब्रासा॰ 6.1.6)। “यस्तु त्रिवृत्स्तोमोऽस्ति त्रयावृत्या नवर्च्चः सम्पद्यन्ते” (तांब्रासा॰ 6.2.2)। “त्रिवृद् बहिष्पवमानम्” (जैब्रा॰ 2.135)।

[31] “सूक्तत्रयगानसाध्यं स्तोत्रं बहिष्प्वमानमित्युच्यते तत्रावस्थितानामृचां पवमानार्थत्वात् बहिः संबन्धाच्च” (विस्तर 1.4.3.6-7)।

[32] “पञ्चदशस्तोमं तृचगतानां तिसृणामृचां त्रिष्वपि पर्यायेषु पञ्चवारावृत्तिसाध्यं पञ्चदशस्तोमम्” (तांब्रासा॰ 6.1.8)।

[33] “तानि [“अग्न आ याहि वीतये”, “आ नो मित्रावरुण”, “आ याहि सुषमा हि ते”, “इन्द्राग्नी आ गतं सुतम्”] एतानि प्रातः सवने गायत्रसाम्ना गीयमानानि चत्वार्याज्यस्तोत्राणीत्युच्यन्ते” (विस्तर 1.4.3.6-7)।

[34] “प्रथमावृत्तौ प्रथमायामृचि त्रिरभ्यासः, द्वितीयावृत्तौ मध्यमायाम्, तृतीयावृत्तौ मध्यमोत्तमयोः सोऽयं सप्तदशस्तोम इति” (ऐब्रा॰ 3.14.4)।

[35] “एतानि (“अभि त्वा शूर नोनुम्”, “कयानश्चित्र आभुवत्”, “तं वो दस्ममृतीषहम्”, “तरोभिर्वो विदद्वसुम्”) एतानि क्रमेण रथन्तरवामदेव्यनौधसकालेयसामभिर्माध्यन्दिनसवने गीयमानानि पृष्ठस्तोत्राणि इत्युच्यन्ते” (विस्तर 1.4.3.6-7)।

[36] “आर्भव संज्ञकः पवमानः ज्योतिष्टोमे तृतीयसवनेऽस्ति। तस्मिन् पञ्चसूक्तानि ततः गायत्री-अनुष्टुप्-उष्णिक-ककुब्-जगतीभिः पञ्चच्छन्दाः सप्तसामा च भवति”(विस्तर 9.2.6)।

[37] “यज्ञायज्ञा वो अग्नय इत्यस्यामृचि गीयमानमग्निष्टोमसंज्ञकं स्तोत्रम्” (काश्रौ॰ 10.7.1 पर सरलावृत्ति)। “अग्निष्टोमसंस्थाप्रयुक्तं मुख्यं स्तोत्रमिदम्” (सत्याषाढ 9.4 पर गोपीनाथकी व्याख्या)।

[38]  ऐब्रा॰ (14.3, आश्वश्रौसू॰ 6.1.1-3)।

[39]  ऐब्रा॰ (14.1-4, आश्रौसू॰ 14.2.3, आश्वश्रौसू॰ 6.2.3, सत्याश्रौसू॰ 9.7)।

[40]  आपश्रौसू॰ (14.4.12-16, सत्याश्रौसू॰ 9.7, शांखायन 15.5.14-18)।

[41]  आपश्रौसू॰ (18.1.5, तांब्रा॰ 18.7.5, आपश्रौसू॰ 18.1.12, आश्वश्रौसू॰ 9.9.2-3)।

[42] जैमिनी (4.3.29-39) के मतसे बृहस्पतिसव वाजपेयका ही अंग है। तैत्तिरीय ब्राह्मण (2.7.1) आपश्रौसू॰ (22.7.5) तथा आश्वश्रौसू॰ (9.5.3) के अनुसार बृहस्पतिसव एक प्रकारका एकाह सोमयाग है, जो आध्पित्यके अभिलाषी द्वारा किया जाता है। आश्वश्रौसू॰ (9.5.3) ने ब्रह्मवर्चसके अभिलाषीके लिए इसे करनेको कहा है। तैत्तिब्रा॰ (2.7.1) ने राजपुरोहित पदकी प्राप्तिके लिए इसे करनेको कहा है।

[43]  तदुपश्रुत्य नभसि खेचराणां प्रजल्पताम् (भागपु॰ 4.3.5)।

[44]  अथादीक्षत राजा तु हयमेध्शतेन सः। ब्रह्मावर्ते मनोः क्षेत्रां यत्र प्राची सरस्वती।। (भागपु॰ 4.19.1)।

[45]  भगवानपि वैवुफण्ठः सावंफ मघवता विभुः। यज्ञैर्यज्ञपतिस्तुष्टो यज्ञभुव्फ तमभाषत।। (भागपु॰ 4.20.1)।

[46] श्रुत्वाश्वमेधैर्यजमानमूर्जितं बलिं भृगूणामुपकल्पितैस्ततः। जगाम तत्राखिलसारसंभृतो भारेण गां सन्नमयन् पदे पदे।। (भागपु॰ 8.18.20)।

लेखक –   डा. नारायाणदत्त शर्मा