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Rigveda – Shakala Samhita – Mandala 01 Sukta 109
A
A+
८ कुत्स आङ्गिरसः। इन्द्राग्नी। त्रिष्टुप्।
वि ह्यख्यं॒ मन॑सा॒ वस्य॑ इ॒च्छन्निन्द्रा॑ग्नी ज्ञा॒स उ॒त वा॑ सजा॒तान् ।
नान्या यु॒वत् प्रम॑तिरस्ति॒ मह्यं॒ स वां॒ धियं॑ वाज॒यन्ती॑मतक्षम् ॥१॥
अश्र॑वं॒ हि भू॑रि॒दाव॑त्तरा वां॒ विजा॑मातुरु॒त वा॑ घा स्या॒लात् ।
अथा॒ सोम॑स्य॒ प्रय॑ती यु॒वभ्या॒मिन्द्रा॑ग्नी॒ स्तोमं॑ जनयामि॒ नव्य॑म् ॥२॥
मा च्छे॑द्म र॒श्मीँरिति॒ नाध॑मानाः पितॄ॒णां श॒क्तीर॑नु॒यच्छ॑मानाः ।
इ॒न्द्रा॒ग्निभ्यां॒ कं वृष॑णो मदन्ति॒ ता ह्यद्री॑ धि॒षणा॑या उ॒पस्थे॑ ॥३॥
यु॒वाभ्यां॑ दे॒वी धि॒षणा॒ मदा॒येन्द्रा॑ग्नी॒ सोम॑मुश॒ती सु॑नोति ।
ताव॑श्विना भद्रहस्ता सुपाणी॒ आ धा॑वतं॒ मधु॑ना पृ॒ङ्क्तम॒प्सु ॥४॥
यु॒वामि॑न्द्राग्नी॒ वसु॑नो विभा॒गे त॒वस्त॑मा शुश्रव वृत्र॒हत्ये॑ ।
तावा॒सद्या॑ ब॒र्हिषि॑ य॒ज्ञे अ॒स्मिन् प्र च॑र्षणी मादयेथां सु॒तस्य॑ ॥५॥
प्र च॑र्ष॒णिभ्य॑: पृतना॒हवे॑षु॒ प्र पृ॑थि॒व्या रि॑रिचाथे दि॒वश्च॑ ।
प्र सिन्धु॑भ्य॒: प्र गि॒रिभ्यो॑ महि॒त्वा प्रेन्द्रा॑ग्नी॒ विश्वा॒ भुव॒नात्य॒न्या ॥६॥
आ भ॑रतं॒ शिक्ष॑तं वज्रबाहू अ॒स्माँ इ॑न्द्राग्नी अवतं॒ शची॑भिः ।
इ॒मे नु ते र॒श्मय॒: सूर्य॑स्य॒ येभि॑: सपि॒त्वं पि॒तरो॑ न॒ आस॑न् ॥७॥
पुरं॑दरा॒ शिक्ष॑तं वज्रहस्ता॒स्माँ इ॑न्द्राग्नी अवतं॒ भरे॑षु ।
तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥८॥
वि ह्यख्यं॒ मन॑सा॒ वस्य॑ इ॒च्छन्निन्द्रा॑ग्नी ज्ञा॒स उ॒त वा॑ सजा॒तान् ।
नान्या यु॒वत् प्रम॑तिरस्ति॒ मह्यं॒ स वां॒ धियं॑ वाज॒यन्ती॑मतक्षम् ॥१॥
अश्र॑वं॒ हि भू॑रि॒दाव॑त्तरा वां॒ विजा॑मातुरु॒त वा॑ घा स्या॒लात् ।
अथा॒ सोम॑स्य॒ प्रय॑ती यु॒वभ्या॒मिन्द्रा॑ग्नी॒ स्तोमं॑ जनयामि॒ नव्य॑म् ॥२॥
मा च्छे॑द्म र॒श्मीँरिति॒ नाध॑मानाः पितॄ॒णां श॒क्तीर॑नु॒यच्छ॑मानाः ।
इ॒न्द्रा॒ग्निभ्यां॒ कं वृष॑णो मदन्ति॒ ता ह्यद्री॑ धि॒षणा॑या उ॒पस्थे॑ ॥३॥
यु॒वाभ्यां॑ दे॒वी धि॒षणा॒ मदा॒येन्द्रा॑ग्नी॒ सोम॑मुश॒ती सु॑नोति ।
ताव॑श्विना भद्रहस्ता सुपाणी॒ आ धा॑वतं॒ मधु॑ना पृ॒ङ्क्तम॒प्सु ॥४॥
यु॒वामि॑न्द्राग्नी॒ वसु॑नो विभा॒गे त॒वस्त॑मा शुश्रव वृत्र॒हत्ये॑ ।
तावा॒सद्या॑ ब॒र्हिषि॑ य॒ज्ञे अ॒स्मिन् प्र च॑र्षणी मादयेथां सु॒तस्य॑ ॥५॥
प्र च॑र्ष॒णिभ्य॑: पृतना॒हवे॑षु॒ प्र पृ॑थि॒व्या रि॑रिचाथे दि॒वश्च॑ ।
प्र सिन्धु॑भ्य॒: प्र गि॒रिभ्यो॑ महि॒त्वा प्रेन्द्रा॑ग्नी॒ विश्वा॒ भुव॒नात्य॒न्या ॥६॥
आ भ॑रतं॒ शिक्ष॑तं वज्रबाहू अ॒स्माँ इ॑न्द्राग्नी अवतं॒ शची॑भिः ।
इ॒मे नु ते र॒श्मय॒: सूर्य॑स्य॒ येभि॑: सपि॒त्वं पि॒तरो॑ न॒ आस॑न् ॥७॥
पुरं॑दरा॒ शिक्ष॑तं वज्रहस्ता॒स्माँ इ॑न्द्राग्नी अवतं॒ भरे॑षु ।
तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥८॥