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Rigveda – Shakala Samhita – Mandala 01 Sukta 102
A
A+
११ कुत्स आङ्गिरसः। इन्द्रः। जगती, ११ त्रिष्टुप्।
इ॒मां ते॒ धियं॒ प्र भ॑रे म॒हो म॒हीम॒स्य स्तो॒त्रे धि॒षणा॒ यत्त॑ आन॒जे ।
तमु॑त्स॒वे च॑ प्रस॒वे च॑ सास॒हिमिन्द्रं॑ दे॒वास॒: शव॑सामद॒न्ननु॑ ॥१॥
अ॒स्य श्रवो॑ न॒द्य॑: स॒प्त बि॑भ्रति॒ द्यावा॒क्षामा॑ पृथि॒वी द॑र्श॒तं वपु॑: ।
अ॒स्मे सू॑र्याचन्द्र॒मसा॑भि॒चक्षे॑ श्र॒द्धे कमि॑न्द्र चरतो वितर्तु॒रम् ॥२॥
तं स्मा॒ रथं॑ मघव॒न् प्राव॑ सा॒तये॒ जैत्रं॒ यं ते॑ अनु॒मदा॑म संग॒मे ।
आ॒जा न॑ इन्द्र॒ मन॑सा पुरुष्टुत त्वा॒यद्भ्यो॑ मघव॒ञ्छर्म॑ यच्छ नः ॥३॥
व॒यं ज॑येम॒ त्वया॑ यु॒जा वृत॑म॒स्माक॒मंश॒मुद॑वा॒ भरे॑भरे ।
अ॒स्मभ्य॑मिन्द्र॒ वरि॑वः सु॒गं कृ॑धि॒ प्र शत्रू॑णां मघव॒न् वृष्ण्या॑ रुज ॥४॥
नाना॒ हि त्वा॒ हव॑माना॒ जना॑ इ॒मे धना॑नां धर्त॒रव॑सा विप॒न्यव॑: ।
अ॒स्माकं॑ स्मा॒ रथ॒मा ति॑ष्ठ सा॒तये॒ जैत्रं॒ ही॑न्द्र॒ निभृ॑तं॒ मन॒स्तव॑ ॥५॥
गो॒जिता॑ बा॒हू अमि॑तक्रतुः सि॒मः कर्म॑न्कर्मञ्छ॒तमू॑तिः खजंक॒रः ।
अ॒क॒ल्प इन्द्र॑: प्रति॒मान॒मोज॒साथा॒ जना॒ वि ह्व॑यन्ते सिषा॒सव॑: ॥६॥
उत्ते॑ श॒तान्म॑घव॒न्नुच्च॒ भूय॑स॒ उत् स॒हस्रा॑द् रिरिचे कृ॒ष्टिषु॒ श्रव॑: ।
अ॒मा॒त्रं त्वा॑ धि॒षणा॑ तित्विषे म॒ह्यधा॑ वृ॒त्राणि॑ जिघ्नसे पुरंदर ॥७॥
त्रि॒वि॒ष्टि॒धातु॑ प्रति॒मान॒मोज॑सस्ति॒स्रो भूमी॑र्नृपते॒ त्रीणि॑ रोच॒ना ।
अती॒दं विश्वं॒ भुव॑नं ववक्षिथाश॒त्रुरि॑न्द्र ज॒नुषा॑ स॒नाद॑सि ॥८॥
त्वां दे॒वेषु॑ प्रथ॒मं ह॑वामहे॒ त्वं ब॑भूथ॒ पृत॑नासु सास॒हिः ।
सेमं न॑: का॒रुमु॑पम॒न्युमु॒द्भिद॒मिन्द्र॑: कृणोतु प्रस॒वे रथं॑ पु॒रः ॥९॥
त्वं जि॑गेथ॒ न धना॑ रुरोधि॒थार्भे॑ष्वा॒जा म॑घवन् म॒हत्सु॑ च ।
त्वामु॒ग्रमव॑से॒ सं शि॑शीम॒स्यथा॑ न इन्द्र॒ हव॑नेषु चोदय ॥१०॥
वि॒श्वाहेन्द्रो॑ अधिव॒क्ता नो॑ अ॒स्त्वप॑रिह्वृताः सनुयाम॒ वाज॑म् ।
तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥११॥
इ॒मां ते॒ धियं॒ प्र भ॑रे म॒हो म॒हीम॒स्य स्तो॒त्रे धि॒षणा॒ यत्त॑ आन॒जे ।
तमु॑त्स॒वे च॑ प्रस॒वे च॑ सास॒हिमिन्द्रं॑ दे॒वास॒: शव॑सामद॒न्ननु॑ ॥१॥
अ॒स्य श्रवो॑ न॒द्य॑: स॒प्त बि॑भ्रति॒ द्यावा॒क्षामा॑ पृथि॒वी द॑र्श॒तं वपु॑: ।
अ॒स्मे सू॑र्याचन्द्र॒मसा॑भि॒चक्षे॑ श्र॒द्धे कमि॑न्द्र चरतो वितर्तु॒रम् ॥२॥
तं स्मा॒ रथं॑ मघव॒न् प्राव॑ सा॒तये॒ जैत्रं॒ यं ते॑ अनु॒मदा॑म संग॒मे ।
आ॒जा न॑ इन्द्र॒ मन॑सा पुरुष्टुत त्वा॒यद्भ्यो॑ मघव॒ञ्छर्म॑ यच्छ नः ॥३॥
व॒यं ज॑येम॒ त्वया॑ यु॒जा वृत॑म॒स्माक॒मंश॒मुद॑वा॒ भरे॑भरे ।
अ॒स्मभ्य॑मिन्द्र॒ वरि॑वः सु॒गं कृ॑धि॒ प्र शत्रू॑णां मघव॒न् वृष्ण्या॑ रुज ॥४॥
नाना॒ हि त्वा॒ हव॑माना॒ जना॑ इ॒मे धना॑नां धर्त॒रव॑सा विप॒न्यव॑: ।
अ॒स्माकं॑ स्मा॒ रथ॒मा ति॑ष्ठ सा॒तये॒ जैत्रं॒ ही॑न्द्र॒ निभृ॑तं॒ मन॒स्तव॑ ॥५॥
गो॒जिता॑ बा॒हू अमि॑तक्रतुः सि॒मः कर्म॑न्कर्मञ्छ॒तमू॑तिः खजंक॒रः ।
अ॒क॒ल्प इन्द्र॑: प्रति॒मान॒मोज॒साथा॒ जना॒ वि ह्व॑यन्ते सिषा॒सव॑: ॥६॥
उत्ते॑ श॒तान्म॑घव॒न्नुच्च॒ भूय॑स॒ उत् स॒हस्रा॑द् रिरिचे कृ॒ष्टिषु॒ श्रव॑: ।
अ॒मा॒त्रं त्वा॑ धि॒षणा॑ तित्विषे म॒ह्यधा॑ वृ॒त्राणि॑ जिघ्नसे पुरंदर ॥७॥
त्रि॒वि॒ष्टि॒धातु॑ प्रति॒मान॒मोज॑सस्ति॒स्रो भूमी॑र्नृपते॒ त्रीणि॑ रोच॒ना ।
अती॒दं विश्वं॒ भुव॑नं ववक्षिथाश॒त्रुरि॑न्द्र ज॒नुषा॑ स॒नाद॑सि ॥८॥
त्वां दे॒वेषु॑ प्रथ॒मं ह॑वामहे॒ त्वं ब॑भूथ॒ पृत॑नासु सास॒हिः ।
सेमं न॑: का॒रुमु॑पम॒न्युमु॒द्भिद॒मिन्द्र॑: कृणोतु प्रस॒वे रथं॑ पु॒रः ॥९॥
त्वं जि॑गेथ॒ न धना॑ रुरोधि॒थार्भे॑ष्वा॒जा म॑घवन् म॒हत्सु॑ च ।
त्वामु॒ग्रमव॑से॒ सं शि॑शीम॒स्यथा॑ न इन्द्र॒ हव॑नेषु चोदय ॥१०॥
वि॒श्वाहेन्द्रो॑ अधिव॒क्ता नो॑ अ॒स्त्वप॑रिह्वृताः सनुयाम॒ वाज॑म् ।
तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥११॥