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Rigveda – Shakala Samhita – Mandala 01 Sukta 063
A
A+
९ नोधा गौतमः। इन्द्रः। त्रिष्टुप्।
त्वं म॒हाँ इ॑न्द्र॒ यो ह॒ शुष्मै॒र्द्यावा॑ जज्ञा॒नः पृ॑थि॒वी अमे॑ धाः ।
यद्ध॑ ते॒ विश्वा॑ गि॒रय॑श्चि॒दभ्वा॑ भि॒या दृ॒ह्लास॑: कि॒रणा॒ नैज॑न् ॥१॥
आ यद्धरी॑ इन्द्र॒ विव्र॑ता॒ वेरा ते॒ वज्रं॑ जरि॒ता बा॒ह्वोर्धा॑त् ।
येना॑विहर्यतक्रतो अ॒मित्रा॒न् पुर॑ इ॒ष्णासि॑ पुरुहूत पू॒र्वीः ॥२॥
त्वं स॒त्य इ॑न्द्र धृ॒ष्णुरे॒तान् त्वमृ॑भु॒क्षा नर्य॒स्त्वं षाट् ।
त्वं शुष्णं॑ वृ॒जने॑ पृ॒क्ष आ॒णौ यूने॒ कुत्सा॑य द्यु॒मते॒ सचा॑हन् ॥३॥
त्वं ह॒ त्यदि॑न्द्र चोदी॒: सखा॑ वृ॒त्रं यद् व॑ज्रिन् वृषकर्मन्नु॒भ्नाः ।
यद्ध॑ शूर वृषमणः परा॒चैर्वि दस्यूँ॒र्योना॒वकृ॑तो वृथा॒षाट् ॥४॥
त्वं ह॒ त्यदि॒न्द्रारि॑षण्यन् दृ॒ह्लस्य॑ चि॒न्मर्ता॑ना॒मजु॑ष्टौ ।
व्य १ स्मदा काष्ठा॒ अर्व॑ते वर्घ॒नेव॑ वज्रिञ्छ्नथिह्य॒मित्रा॑न् ॥५॥
त्वां ह॒ त्यदि॒न्द्रार्ण॑सातौ॒ स्व॑र्मीह्ले॒ नर॑ आ॒जा ह॑वन्ते ।
तव॑ स्वधाव इ॒यमा स॑म॒र्य ऊ॒तिर्वाजे॑ष्वत॒साय्या॑ भूत् ॥६॥
त्वं ह॒ त्यदि॑न्द्र स॒प्त युध्य॒न्पु पुरो॑ वज्रिन् पुरु॒कुत्सा॑य दर्दः ।
ब॒र्हिर्न यत् सु॒दासे॒ वृथा॒ वर्गं॒हो रा॑ज॒न् वरि॑वः पू॒रवे॑ कः ॥७॥
त्वं त्यां न॑ इन्द्र देव चि॒त्रामिष॒मापो॒ न पी॑पय॒: परि॑ज्मन् ।
यया॑ शूर॒ प्रत्य॒स्मभ्यं॒ यंसि॒ त्मन॒मूर्जं॒ न वि॒श्वध॒ क्षर॑ध्यै ॥८॥
अका॑रि त इन्द्र॒ गोत॑मेभि॒र्ब्रह्मा॒ण्योक्ता॒ नम॑सा॒ हरि॑भ्याम् ।
सु॒पेश॑सं॒ वाज॒मा भ॑रा नः प्रा॒तर्म॒क्षू धि॒याव॑सुर्जगम्यात् ॥९॥
त्वं म॒हाँ इ॑न्द्र॒ यो ह॒ शुष्मै॒र्द्यावा॑ जज्ञा॒नः पृ॑थि॒वी अमे॑ धाः ।
यद्ध॑ ते॒ विश्वा॑ गि॒रय॑श्चि॒दभ्वा॑ भि॒या दृ॒ह्लास॑: कि॒रणा॒ नैज॑न् ॥१॥
आ यद्धरी॑ इन्द्र॒ विव्र॑ता॒ वेरा ते॒ वज्रं॑ जरि॒ता बा॒ह्वोर्धा॑त् ।
येना॑विहर्यतक्रतो अ॒मित्रा॒न् पुर॑ इ॒ष्णासि॑ पुरुहूत पू॒र्वीः ॥२॥
त्वं स॒त्य इ॑न्द्र धृ॒ष्णुरे॒तान् त्वमृ॑भु॒क्षा नर्य॒स्त्वं षाट् ।
त्वं शुष्णं॑ वृ॒जने॑ पृ॒क्ष आ॒णौ यूने॒ कुत्सा॑य द्यु॒मते॒ सचा॑हन् ॥३॥
त्वं ह॒ त्यदि॑न्द्र चोदी॒: सखा॑ वृ॒त्रं यद् व॑ज्रिन् वृषकर्मन्नु॒भ्नाः ।
यद्ध॑ शूर वृषमणः परा॒चैर्वि दस्यूँ॒र्योना॒वकृ॑तो वृथा॒षाट् ॥४॥
त्वं ह॒ त्यदि॒न्द्रारि॑षण्यन् दृ॒ह्लस्य॑ चि॒न्मर्ता॑ना॒मजु॑ष्टौ ।
व्य १ स्मदा काष्ठा॒ अर्व॑ते वर्घ॒नेव॑ वज्रिञ्छ्नथिह्य॒मित्रा॑न् ॥५॥
त्वां ह॒ त्यदि॒न्द्रार्ण॑सातौ॒ स्व॑र्मीह्ले॒ नर॑ आ॒जा ह॑वन्ते ।
तव॑ स्वधाव इ॒यमा स॑म॒र्य ऊ॒तिर्वाजे॑ष्वत॒साय्या॑ भूत् ॥६॥
त्वं ह॒ त्यदि॑न्द्र स॒प्त युध्य॒न्पु पुरो॑ वज्रिन् पुरु॒कुत्सा॑य दर्दः ।
ब॒र्हिर्न यत् सु॒दासे॒ वृथा॒ वर्गं॒हो रा॑ज॒न् वरि॑वः पू॒रवे॑ कः ॥७॥
त्वं त्यां न॑ इन्द्र देव चि॒त्रामिष॒मापो॒ न पी॑पय॒: परि॑ज्मन् ।
यया॑ शूर॒ प्रत्य॒स्मभ्यं॒ यंसि॒ त्मन॒मूर्जं॒ न वि॒श्वध॒ क्षर॑ध्यै ॥८॥
अका॑रि त इन्द्र॒ गोत॑मेभि॒र्ब्रह्मा॒ण्योक्ता॒ नम॑सा॒ हरि॑भ्याम् ।
सु॒पेश॑सं॒ वाज॒मा भ॑रा नः प्रा॒तर्म॒क्षू धि॒याव॑सुर्जगम्यात् ॥९॥