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Rigveda – Shakala Samhita – Mandala 01 Sukta 143
A
A+
८ दीर्घतमा औचथ्यः। अग्निः। जगती, ८ त्रिष्टुप् ।
प्र तव्य॑सीं॒ नव्य॑सीं धी॒तिम॒ग्नये॑ वा॒चो म॒तिं सह॑सः सू॒नवे॑ भरे ।
अ॒पां नपा॒द् यो वसु॑भिः स॒ह प्रि॒यो होता॑ पृथि॒व्यां न्यसी॑ददृ॒त्विय॑: ॥१॥
स जाय॑मानः पर॒मे व्यो॑मन्या॒विर॒ग्निर॑भवन्मात॒रिश्व॑ने ।
अ॒स्य क्रत्वा॑ समिधा॒नस्य॑ म॒ज्मना॒ प्र द्यावा॑ शो॒चिः पृ॑थि॒वी अ॑रोचयत् ॥२॥
अ॒स्य त्वे॒षा अ॒जरा॑ अ॒स्य भा॒नव॑: सुसं॒दृश॑: सु॒प्रती॑कस्य सु॒द्युत॑: ।
भात्व॑क्षसो॒ अत्य॒क्तुर्न सिन्ध॑वो॒ ऽग्ने रे॑जन्ते॒ अस॑सन्तो अ॒जरा॑: ॥३॥
यमे॑रि॒रे भृग॑वो वि॒श्ववे॑दसं॒ नाभा॑ पृथि॒व्या भुव॑नस्य म॒ज्मना॑ ।
अ॒ग्निं तं गी॒र्भिर्हि॑नुहि॒ स्व आ दमे॒ य एको॒ वस्वो॒ वरु॑णो॒ न राज॑ति ॥४॥
न यो वरा॑य म॒रुता॑मिव स्व॒नः सेने॑व सृ॒ष्टा दि॒व्या यथा॒शनि॑: ।
अ॒ग्निर्जम्भै॑स्तिगि॒तैर॑त्ति॒ भर्व॑ति यो॒धो न शत्रू॒न् त्स वना॒ न्यृ॑ञ्जते ॥५॥
कु॒विन्नो॑ अ॒ग्निरु॒चथ॑स्य॒ वीरस॒द् वसु॑ष्कु॒विद् वसु॑भि॒: काम॑मा॒वर॑त् ।
चो॒दः कु॒वित् तु॑तु॒ज्यात् सा॒तये॒ धिय॒: शुचि॑प्रतीकं॒ तम॒या धि॒या गृ॑णे ॥६॥
घृ॒तप्र॑तीकं व ऋ॒तस्य॑ धू॒र्षद॑म॒ग्निं मि॒त्रं न स॑मिधा॒न ऋ॑ञ्जते ।
इन्धा॑नो अ॒क्रो वि॒दथे॑षु॒ दीद्य॑च्छु॒क्रव॑र्णा॒मुदु॑ नो यंसते॒ धिय॑म् ॥७॥
अप्र॑युच्छ॒न्नप्र॑युच्छद्भिरग्ने शि॒वेभि॑र्नः पा॒युभि॑: पाहि श॒ग्मैः ।
अद॑ब्धेभि॒रदृ॑पितेभिरि॒ष्टे ऽनि॑मिषद्भि॒: परि॑ पाहि नो॒ जाः ॥८॥
प्र तव्य॑सीं॒ नव्य॑सीं धी॒तिम॒ग्नये॑ वा॒चो म॒तिं सह॑सः सू॒नवे॑ भरे ।
अ॒पां नपा॒द् यो वसु॑भिः स॒ह प्रि॒यो होता॑ पृथि॒व्यां न्यसी॑ददृ॒त्विय॑: ॥१॥
स जाय॑मानः पर॒मे व्यो॑मन्या॒विर॒ग्निर॑भवन्मात॒रिश्व॑ने ।
अ॒स्य क्रत्वा॑ समिधा॒नस्य॑ म॒ज्मना॒ प्र द्यावा॑ शो॒चिः पृ॑थि॒वी अ॑रोचयत् ॥२॥
अ॒स्य त्वे॒षा अ॒जरा॑ अ॒स्य भा॒नव॑: सुसं॒दृश॑: सु॒प्रती॑कस्य सु॒द्युत॑: ।
भात्व॑क्षसो॒ अत्य॒क्तुर्न सिन्ध॑वो॒ ऽग्ने रे॑जन्ते॒ अस॑सन्तो अ॒जरा॑: ॥३॥
यमे॑रि॒रे भृग॑वो वि॒श्ववे॑दसं॒ नाभा॑ पृथि॒व्या भुव॑नस्य म॒ज्मना॑ ।
अ॒ग्निं तं गी॒र्भिर्हि॑नुहि॒ स्व आ दमे॒ य एको॒ वस्वो॒ वरु॑णो॒ न राज॑ति ॥४॥
न यो वरा॑य म॒रुता॑मिव स्व॒नः सेने॑व सृ॒ष्टा दि॒व्या यथा॒शनि॑: ।
अ॒ग्निर्जम्भै॑स्तिगि॒तैर॑त्ति॒ भर्व॑ति यो॒धो न शत्रू॒न् त्स वना॒ न्यृ॑ञ्जते ॥५॥
कु॒विन्नो॑ अ॒ग्निरु॒चथ॑स्य॒ वीरस॒द् वसु॑ष्कु॒विद् वसु॑भि॒: काम॑मा॒वर॑त् ।
चो॒दः कु॒वित् तु॑तु॒ज्यात् सा॒तये॒ धिय॒: शुचि॑प्रतीकं॒ तम॒या धि॒या गृ॑णे ॥६॥
घृ॒तप्र॑तीकं व ऋ॒तस्य॑ धू॒र्षद॑म॒ग्निं मि॒त्रं न स॑मिधा॒न ऋ॑ञ्जते ।
इन्धा॑नो अ॒क्रो वि॒दथे॑षु॒ दीद्य॑च्छु॒क्रव॑र्णा॒मुदु॑ नो यंसते॒ धिय॑म् ॥७॥
अप्र॑युच्छ॒न्नप्र॑युच्छद्भिरग्ने शि॒वेभि॑र्नः पा॒युभि॑: पाहि श॒ग्मैः ।
अद॑ब्धेभि॒रदृ॑पितेभिरि॒ष्टे ऽनि॑मिषद्भि॒: परि॑ पाहि नो॒ जाः ॥८॥