Cosmology

श्रुतियों में सृष्टि-सन्दर्भ
(ऋग्वेदीय नासदीयसूक्त-परिशीलन)
(अनन्तश्रीविभूषित जगद्गुरु शंकराचार्य पुरीपीठाधीश्वर स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वतीजी महाराज)

पूर्वाम्नायपुरीपीठसे सम्बन्धित ऋग्वेदान्तर्गत दशम मण्डलका एक सौ उनतीसवाँ ‘नासदीयसूक्तʼ है। इसमें सात मन्त्र (ऋचाएं) है। इस सूक्तको सात संदर्भों में विभक्त किया जा सकता है। ‘मायाशेषसंदर्भ’ के अन्तर्गत प्रथम मन्त्रको, ‘मायाश्रयस्वप्रकाश-परब्रह्मशेषसंदर्भ’ के अन्तर्गत द्वितीय मन्त्रको, स्रष्टव्यपर्यालोचनसंदर्भ’ के अन्तर्गत तृतीय मन्त्रको, ‘सिसृक्षासंदर्भ’ के अन्तर्गत चतुर्थ मन्त्रको, ‘सर्गक्रमदुर्लक्ष्यतासंदर्भ’ के अन्तर्गत पञ्चम मन्त्रको, ‘जगत्कारणदुर्लक्ष्यतासंदर्भ’ के अन्तर्गत षष्ठ मन्त्रको और दुर्धरदुर्विज्ञेयतासंदर्भ’ के अन्तर्गत सप्तम मन्त्रको गुम्फित करना उपयुक्त है।

ध्यान रहे, नासदीयसूक्तमें विवक्षावशात् मायाको नौ नामोंसे अभिहित किया गया है- १- न सत्, २- न असत्, ३- स्वधा, ४- तमस्, ५- तुच्छ, ६- आभु, ७- असत्, ८- मनस्, ९- परमव्योम। परमात्माका मन मायारूप है। परमव्योमका अर्थ जहाँ सच्चिदानन्दरूप परमात्मा है, वहाँ ‘यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन्’ (तैत्तिरीयोपनिषद् २।१)- की शैलीमें अव्याकृतसंज्ञक माया भी है। कठरुद्रोपनिषद्(१०-११)- ने भी माया को परमव्योम माना है-

संसारे च गुहावाच्ये मायाज्ञानादिसंज्ञके॥
निहितं ब्रह्म यो वेद परमे व्योम्नि संज्ञिते।
सोऽश्नुते सकलान् कामान् क्रमेणैव द्विजोत्तमः॥

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